रविवार, 24 जनवरी 2010
विदाई
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
रुचिका,राठौर और हमारा तंत्र !
रुचिका के बारे में आज हम सब भूल जाते ,पर एक जागरूक नागरिक का फर्ज़ पूरा करते हुए प्रकाश-परिवार ने वह मिसाल कायम की है, जिसे लोग अपने लोगों के लिए भी करने में घबड़ाते हैं। वह किशोरी एक 'बुरे अंकल' और ज़िम्मेदार ओहदे पर बैठे शख्स की बदनीयती का शिकार हो गई और हमारा तंत्र उस 'राठौर' को छः महीने का प्रतीकात्मक 'दंड' देकर मानो अपने कर्तव्य से छुट्टी पा गया हो ! तिस पर तुर्रा यह कि मामले पर फैसला आने के बाद उस 'शैतान' के चेहरे पर घोर कुटिल हँसी दिख रही थी, जो उन सी बी आई के अफसरों को नहीं दिखी ,जो यह कहकर उसकी सज़ा कम करने की पैरवी कर रहे थे कि लंबा मुकदमा और उनकी उम्र को ध्यान में रखा जाये !
क्या इस तंत्र पर हमें हँसी नहीं आती ,जो एक तरफ एक निर्दोष बालिका की पूरी ज़िन्दगी को अनदेखा कर रहा है व उस संवेदन-हीन अफ़सर के कुछ महीनों को बहुमूल्य बता रहा है ? हमारा तंत्र और कानून इस बात का ख्याल रखता है कि पीड़ित का पक्ष देखा जाये पर यहाँ तो शुरू से ही मामला उल्टा रहा ।जिस घटना के फलस्वरूप एक जान चली गयी हो उसमें केवल छेड़-छाड़ का मामला दर्ज करके पहले ही इस मामले को दफ़न करने का पुख्ता इंतज़ाम कर लिया गया था जिसमें नेता,अफ़सर और जांच अधिकारी सब की मिली-भगत थी।
बहर-हाल ऐसे इंसान को सरे-आम नंगा करने के लिए अनुराधा प्रकाश और उनके माता-पिता बधाई के पात्र हैं!
सोमवार, 21 दिसंबर 2009
रावन रथी, बिरथ रघुबीरा !
वे अपने को रथी बता रहे हैं और रथ पर सवार होकर ही सत्ता-प्राप्ति के लिए विरोधियों से लड़ने को तैयार हैं,जबकि उन्हें यह पता होना चाहिए कि लोकतंत्र की लड़ाई रथ पर बैठे-बैठे नहीं जीती जाती बल्कि उसके लिए पैदल,नंगे पाँव चलकर,आम लोगों के बीच जाकर माटी और घाम सहना पड़ता है। आडवाणी जी अपने आराध्य श्री राम को भी यहाँ भूल जाते हैं ,जब उन्होंने बिना रथ के होकर रथ पर चढ़े हुए रावण के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ा था।अब यहाँ क्या यह बताने की ज़रुरत है कि वे किसकी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं?
रही बात उनके संन्यास न लेने की ,तो यह किसी का भी व्यक्तिगत फैसला हो सकता है,पर कोई भी राजनेता स्वेच्छा से संन्यास नहीं लेना चाहता है, उसे तो परिस्थितियां और जनता स्वयं संन्यास में पहुँचा देती है। सत्ता का मोह होता ही इतना भ्रामक है कि व्यक्ति मजबूर हो जाता है और इसका खामियाज़ा दूसरों को भुगतना पड़ता है।
भाजपा में शीर्ष में कुछ भी नहीं बदला है सिवाय कुछ 'नेमप्लेटों 'के इधर-उधर होने के! जब तक कार्यकर्ताओं के स्तर से बदलाव की बयार नहीं आती तब तक उनमें जोश के संचार की कामना व्यर्थ है। जिस मुखिया को पद-त्याग का उदाहरण पेश करना चाहिए वह रथ पर चढ़ा हुआ है और उससे मिलने के लिए किसी रथी को ही इज़ाजत है ,आम आदमी को नहीं !