कई सालों से दिल्ली में ही होली मन रही है। पिछले पन्द्रह वर्षों से जब से दिल्ली में हूँ ,शायद एक -दो बार ही होली में गाँव जाना हुआ। दिल्ली आकर तो लगता है सारे त्यौहार ही ठप पड़ गए हैं। बचपन में जब गाँव में रहना होता था तो हर त्यौहार का एक अलग ही उल्लास था। होली और दिवाली में तो बच्चे अपने मन की खूब करते थे और बड़े भी उसमें शामिल होते थे।
होली की बात चल रही है तो इसी की बात करते हैं। हमें याद आता है कि होलिका-दहन में शाम को सारे लोग गाँव के बाहर इकठ्ठा होते थे,और वहाँ हम सब अपने साथ गोबर से बने हुए 'बल्ले' ले जाते थे । इन 'बल्लों' के बारे में भी दिलचस्प बात यह है कि होली से क़रीब पन्द्रह दिन पहले से सबके यहाँ 'बल्ले' बनते थे ,जिनकी आक्रतियों में कई तरह के जानवर व खिलौने होते थे । इन्हीं सूखे बल्लों को बच्चे रस्सियों में बाँध लेते थे तथा यह ध्यान रखा जाता था कि एक रस्सी में पाँच बल्ले ज़रूर हों!
होलिका-दहन में गाँव से एक पंडितजी होते थे और जब वो 'बल्लों' के ढेर में आग लगाते तो सारे लोग उधर अपनी पीठ कर लेते थे। इस तरह जब पूरी तरह आग लग जाती तो लोग उसमें से अपना-अपना हिस्सा (जलते हुए बल्लों के टुकड़े) लेते और उसे घर लाया जाता। घर में बड़ी-बूढ़ी उसी आग से पूजा के लिए आँगन में होली जलातीऔर इसके बाद प्रसाद बाँटा जाता।
अगले दिन धुलेंडी होती थी और इसके लिए गाँव में कई टोलियाँ तैयार होती, जो गाँव के पास ही एक मन्दिर के पास इकट्ठा होती थीं । रास्ते में हम-लोग विचित्र प्रकार की वेश-भूषा बनाकर लोगों को डराते व उनपर कीचड़ डालते या लोगों को कोयले से रंग देते।
दोपहर बाद गाँव में फ़ाग की शुरुआत होती और यह सिलसिला तीन दिन तक चलता था । फ़ाग की मंडली हर घर के दरवाजे जाती थी और गृह-स्वामी यथा-शक्ति खातिरदारी करते थे। इस खातिरदारी में 'गुड़-भंगा' ,गन्ने का रस,गुझिया ,पेड़े व घिसी हुई शकर और पान शामिल था।
तीन दिनों तक गाँव के लोग फ़ाग का आनंद लेते जिसमें कई लोग तो इतने मस्त हो जाते कि पूछो मत। तब की होली में अपुन की भी सक्रिय भागीदारी होती थी,जबकि अब दिल्ली में 'फ्लैट' के अन्दर ही धुलेंडी के दिन रहना पड़ता है। वाकई में अब होली कितनी रंग-हीन हो गयी है!
बुधवार, 11 मार्च 2009
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