बहुत दिनों बाद अटलजी की तरफ़ से कोई ख़बर आई,मन को थोड़ी ठंडक सी पहुँची कि अभी भी देश में ऐसी कोई आवाज़ है जो ख़बर बनती है !अटलजी का यह संदेश महाराष्ट्र व हरियाणा में हो रहे विधानसभा चुनावों के मद्दे-नज़र आया है,पर इसका प्रभाव मतदाताओं पर भी पड़ेगा ,इस बात से अटलजी भी शंकित होंगे।
दर-असल अटलजी की पारी तो कब की ख़त्म हो ली और अडवाणी जी की हालत तो लोकसभा चुनावों के बाद से ही पतली हो रही है। भाजपाइयों ने ही उन्हें पुराना 'अचार ' कहकर उनके अस्तित्व पर हँसने का मौका मुहैया कराया, ऐसे में पार्टी के रणनीतिकारों ने अपने पुराने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है,पर उन्हें पता भी है कि एक चुका हुआ कारतूस कितना काम कर सकता है?
अटलजी ने अपने संदेश में लोगों से कांग्रेस के कुशासन से बचने को कहा है,गोया उन्हें भी इस बात का इल्हाम हो गया हो कि भाजपा गठबंधन सत्ता में वापस नहीं आ रहा है, नहीं तो वे अपने दल की तरफ़ से जनता को नया क्या देने जा रहे हैं ,इस बारे में बताते।
जिस दल में नेत्रत्व को लेकर बराबर अनिश्चितता बनी हुई हो वह किसी देश या प्रदेश को किस निश्चित राह पर ले जाने को सक्षम होगा ,यह संघ और भाजपा के तमाम बुद्धिजीवी भी जानते होंगे। अडवाणी जी के नेत्रत्व की खुलेआम विफलता के बाद भी पद न छोड़ने की मानसिकता भाजपा के लिए बहुत भारी पड़ने वाली है।
ऐसे संदेश यदि काम करते तो शायद पार्टी इस हाल में न होती क्योंकि जनता को अटलजी का वह संदेश अभी भूला नहीं है जो उन्होंने 'गोधरा' के बाद नरेंद्र मोदी को 'राज-धर्म' निभाने के बारे में दिया था। तब मोदी और अडवाणी जी ने उसके निहितार्थ नहीं समझे ।
एक पार्टी को अपनी चुनावी जीत पक्की करने का पूरा अधिकार है,पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह उपलब्धि वह किस मूल्य पर पाना चाहती है?
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009
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