हाल ही में जबसे दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में समलैंगिकों को कानूनी मान्यता प्रदान की है ,देश भर में एक अलग ही बहस चल पड़ी है। लोकतान्त्रिक देश में किसी विषय पर बहस होना बुरा नहीं है ,पर उस बहस का उद्देश्य ही बिल्कुल बदल जाता है जब यह मात्र व्यावसायिक हितों से जुड़ी हो। मीडिया को बैठे-बिठाये कोई मसाला मिलता है और वह उसमें मिर्च का तड़का देकर एक पक्ष बन जाता है।
'गे' की अवधारणा को भारतीय समाज में आत्मसात करने की वकालत करने वाले इसमें ' नई सोच' , 'वयस्कता' व 'आपसी सहमति' को अपना आधार बना रहे हैं पर क्या इसी कसौटी से 'बहु विवाह','पर-पत्नी गमन' जैसी चीज़ों को भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है? माना कि इस 'मनोवृत्ति ' से पीड़ित लोगों का भी मानवाधिकार है पर खुले-आम ऐसी व्यवस्था को 'लाइसेंस' देने से हमारे बीमार होते जा रहे समाज को एक और ज़हरीला इंजेक्शन चुभाना है !जहाँ तक बात है , कानूनी हक देने कि तो न जाने ऐसे कितने सारे हक , जो समाज को पहले से मिले हुए हैं, शायद ही लागू हो पाते हैं !
हम आधुनिकता के नाम पर यूरोप और अमरीका की नक़ल तो बहुत करते हैं पर वैसी 'विकसित' सोच ला पाते हैं क्या?पहनावे और कला के नाम पर टीवी और अख़बारों में अश्लीलता भरी पड़ी है, और अब तो खुले-आम बाज़ारों में ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं, जहाँ लड़कियाँ अधनंगे बदन घूमती हैं,सिगरेट व शराब पीती हैं। इन बातो को पुरूष-प्रधान समाज की मानसिकता कहकर नकारा जा सकता है ,पर दिन-प्रतिदिन इससे होनेवाले परिणामों पर भी गौर करना ज़रूरी है। एक पुरूष का बिगड़ना व्यक्तिगत प्रभाव छोड़ता है ,पर एक नारी का पतन पूरे परिवार को तबाह कर सकता है।
इसलिए 'गे' समर्थकों से यही कहना है कि वे अपनी खुशी ढूँढें मगर सरे-आम भोंडी हरकतें करके 'अल्ट्रा-आधुनिक' न बनें !
गुरुवार, 9 जुलाई 2009
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