रविवार, 30 नवंबर 2008

नपुंसक होते राजनेता !

अब शायद हमारा देश रोज़ -रोज़ की आतंकवादी घटनाओं से इतना साम्य बिठा चुका है कि ये घटनाएँ किसी को आंदोलित नहीं करतीं .मुंबई कि ताज़ा घटना बताती है कि हम राजनैतिक रूप से तो कमज़ोर थे ही ,हमारे नैतिक बल को भी हिलाया गया है .एक के बाद एक घटनाएँ हमारे देश को झकझोर रही हैं पर हमारा राजनैतिक नेतृत्व चादर ओढे सो रहा है.हमारी कार्यशैली ऐसी बन गई है कि चाहे सरकार कोई भी हो हम अपनी इच्छाशक्ति किसी के हाथों गिरवी रख चुके हैं.कोढ़ में खाज वाली स्थिति तो यह है कि बार -बार सरकार के साथ आतंकवाद के मुद्दे पर साथ देने का वादा करने वाली भाजपा ऐन मौके पर राजनीति करने से बाज नही आती .जो इस समय सरकार चला रहे हैं उनके तो हाल ऐसे हैं जैसे उनकी बयानबाजी से ही सब कुछ ठीकठाक हो जाएगा .ऐसी नपुंसक सरकार अपनी जनता का मनोबल कितना बढ़ा सकती है ,यह आसानी से समझा जा सकता है .चाहे राज ठाकरे की गुंडई हो ,अफज़ल की फांसी हो,देश की आतंरिक सुरक्षा हो या अन्य कोई देशहित का कोई कदम उठाना हो,सरकार वोटों के नफा - नुक्सान का गणित पहले लगाती है,कानून -व्यवस्था लागू करने की बात बाद में सोचती है.आख़िर हम कब तक यूँ ही गुंडों,लुटेरों और कुछ भाड़े के लोगों के हाथ में अपने देश का भविष्य छोडेंगे?अब समय गया है की राजनेता नपुंसकता और बंटवारे की नीति छोड़कर देश के दुश्मनों पर पूरी ताक़त से प्रहार करें.