बुधवार, 16 दिसंबर 2009

छोटे राज्य, बड़ी राजनीति !

हालिया दिनों में देश भर में एक नई ही सनक सवार हुई है। तेलंगाना का मुद्दा भले ही काफी पुराना रहा है,पर जिस तरह से इससे निपटा गया ,वह ख़तरनाक और चिंताजनक है। आंध्र के लोगों को तेलंगाना भले न मिल पाया हो पर कई लोगों को अपनी राजनीति को चमकाने का मौक़ा ज़रूर कांग्रेस की सरकार ने दे दिया है।
पहले तो इस निर्णय से चंद्रशेखर राव को संजीवनी मिल गई,जिनकी पार्टी लगभग लुप्तप्राय हो चली थी। इसके बाद मायावती मेमसाब ने ऐसे-ऐसे राज्यों की मांगें किश्तों में पेश की गोया लखनवी रेवड़ियाँ बँट रही हों ! हरित-प्रदेश,बुंदेलखंड,पूर्वांचल ,ब्रज -प्रदेश आदि कई क्षेत्र राज्य बनने की 'लाइन' में लग गए। उड़ीसा ,महाराष्ट्र ,बंगाल ,उत्तर-पूर्व में भी कई राज्य बनने की संभावनाएं 'राजनीतिकों' को दिखने लगीं। दर-असल इन सभी की दिलचस्पी इन क्षेत्रों के विकास से नहीं बल्कि इनके माध्यम से अपनी दुकानें चलाने और उन्हें बचाने भर की क़वायद है। जो राज्य पहले बन चुके हैं ,वो बदहाली के शिकार हैं और उनके निर्माताओं को इसकी फ़िक्र नहीं है।
नए राज्यों का गठन कोई खिलवाड़ नहीं है,इससे हमारी सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता भी जुड़ी है,जिसको आजकल नज़र-अंदाज़ किया जा रहा है। इसके लिए 'राज्य पुनर्गठन आयोग' को अपना काम करने देना चाहिए नहीं तो आए दिन हमारे राजनेता इतने गंभीर मुद्दों को अपनी राजनीति का शिकार बनाते रहेंगे। इस तरह की माँग ज़ायज बात को भी हल्के में ले जाती है। सरकार अगर इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेती है तो यह समझा जायेगा कि इसका राजनीतिकरण करने में वह बराबर की भागीदार है !अब समय आ गया है कि हम भाषाई और सूबाई राजनीति से सख्ती से निपटें !