बुधवार, 23 दिसंबर 2009

रुचिका,राठौर और हमारा तंत्र !

रुचिका के बारे में आज हम सब भूल जाते ,पर एक जागरूक नागरिक का फर्ज़ पूरा करते हुए प्रकाश-परिवार ने वह मिसाल कायम की है, जिसे लोग अपने लोगों के लिए भी करने में घबड़ाते हैं। वह किशोरी एक 'बुरे अंकल' और ज़िम्मेदार ओहदे पर बैठे शख्स की बदनीयती का शिकार हो गई और हमारा तंत्र उस 'राठौर' को छः महीने का प्रतीकात्मक 'दंड' देकर मानो अपने कर्तव्य से छुट्टी पा गया हो ! तिस पर तुर्रा यह कि मामले पर फैसला आने के बाद उस 'शैतान' के चेहरे पर घोर कुटिल हँसी दिख रही थी, जो उन सी बी आई के अफसरों को नहीं दिखी ,जो यह कहकर उसकी सज़ा कम करने की पैरवी कर रहे थे कि लंबा मुकदमा और उनकी उम्र को ध्यान में रखा जाये !

क्या इस तंत्र पर हमें हँसी नहीं आती ,जो एक तरफ एक निर्दोष बालिका की पूरी ज़िन्दगी को अनदेखा कर रहा है व उस संवेदन-हीन अफ़सर के कुछ महीनों को बहुमूल्य बता रहा है ? हमारा तंत्र और कानून इस बात का ख्याल रखता है कि पीड़ित का पक्ष देखा जाये पर यहाँ तो शुरू से ही मामला उल्टा रहा ।जिस घटना के फलस्वरूप एक जान चली गयी हो उसमें केवल छेड़-छाड़ का मामला दर्ज करके पहले ही इस मामले को दफ़न करने का पुख्ता इंतज़ाम कर लिया गया था जिसमें नेता,अफ़सर और जांच अधिकारी सब की मिली-भगत थी।

बहर-हाल ऐसे इंसान को सरे-आम नंगा करने के लिए अनुराधा प्रकाश और उनके माता-पिता बधाई के पात्र हैं!

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

रावन रथी, बिरथ रघुबीरा !

भारतीय जनता पार्टी इन दिनों संक्रमण काल से गुजर रही है। संघ के तथाकथित निर्देशों के तहत 'दुनिया' को दिखाने के लिए कुछ चेहरे इधर से उधर किये गए हैं,पर इससे इसका कायाकल्प हो जायेगा, यह सोचना फ़िज़ूल है। पार्टी के सर्वोपरि नेता आडवाणी जी अपने क्रियाकलाप से लगातार इसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहे हैं। कितना हास्यास्पद लगता है उनका यह कहना कि वे रथी हैं और रथ से नहीं उतरेंगे,ना ही उनका अभी संन्यास लेने का इरादा है! उनके इस कथन के निहितार्थ हम इस तरह समझ सकते हैं:
वे अपने को रथी बता रहे हैं और रथ पर सवार होकर ही सत्ता-प्राप्ति के लिए विरोधियों से लड़ने को तैयार हैं,जबकि उन्हें यह पता होना चाहिए कि लोकतंत्र की लड़ाई रथ पर बैठे-बैठे नहीं जीती जाती बल्कि उसके लिए पैदल,नंगे पाँव चलकर,आम लोगों के बीच जाकर माटी और घाम सहना पड़ता है। आडवाणी जी अपने आराध्य श्री राम को भी यहाँ भूल जाते हैं ,जब उन्होंने बिना रथ के होकर रथ पर चढ़े हुए रावण के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ा था।अब यहाँ क्या यह बताने की ज़रुरत है कि वे किसकी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं?
रही बात उनके संन्यास न लेने की ,तो यह किसी का भी व्यक्तिगत फैसला हो सकता है,पर कोई भी राजनेता स्वेच्छा से संन्यास नहीं लेना चाहता है, उसे तो परिस्थितियां और जनता स्वयं संन्यास में पहुँचा देती है। सत्ता का मोह होता ही इतना भ्रामक है कि व्यक्ति मजबूर हो जाता है और इसका खामियाज़ा दूसरों को भुगतना पड़ता है।
भाजपा में शीर्ष में कुछ भी नहीं बदला है सिवाय कुछ 'नेमप्लेटों 'के इधर-उधर होने के! जब तक कार्यकर्ताओं के स्तर से बदलाव की बयार नहीं आती तब तक उनमें जोश के संचार की कामना व्यर्थ है। जिस मुखिया को पद-त्याग का उदाहरण पेश करना चाहिए वह रथ पर चढ़ा हुआ है और उससे मिलने के लिए किसी रथी को ही इज़ाजत है ,आम आदमी को नहीं !

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

छोटे राज्य, बड़ी राजनीति !

हालिया दिनों में देश भर में एक नई ही सनक सवार हुई है। तेलंगाना का मुद्दा भले ही काफी पुराना रहा है,पर जिस तरह से इससे निपटा गया ,वह ख़तरनाक और चिंताजनक है। आंध्र के लोगों को तेलंगाना भले न मिल पाया हो पर कई लोगों को अपनी राजनीति को चमकाने का मौक़ा ज़रूर कांग्रेस की सरकार ने दे दिया है।
पहले तो इस निर्णय से चंद्रशेखर राव को संजीवनी मिल गई,जिनकी पार्टी लगभग लुप्तप्राय हो चली थी। इसके बाद मायावती मेमसाब ने ऐसे-ऐसे राज्यों की मांगें किश्तों में पेश की गोया लखनवी रेवड़ियाँ बँट रही हों ! हरित-प्रदेश,बुंदेलखंड,पूर्वांचल ,ब्रज -प्रदेश आदि कई क्षेत्र राज्य बनने की 'लाइन' में लग गए। उड़ीसा ,महाराष्ट्र ,बंगाल ,उत्तर-पूर्व में भी कई राज्य बनने की संभावनाएं 'राजनीतिकों' को दिखने लगीं। दर-असल इन सभी की दिलचस्पी इन क्षेत्रों के विकास से नहीं बल्कि इनके माध्यम से अपनी दुकानें चलाने और उन्हें बचाने भर की क़वायद है। जो राज्य पहले बन चुके हैं ,वो बदहाली के शिकार हैं और उनके निर्माताओं को इसकी फ़िक्र नहीं है।
नए राज्यों का गठन कोई खिलवाड़ नहीं है,इससे हमारी सांस्कृतिक और भौगोलिक एकता भी जुड़ी है,जिसको आजकल नज़र-अंदाज़ किया जा रहा है। इसके लिए 'राज्य पुनर्गठन आयोग' को अपना काम करने देना चाहिए नहीं तो आए दिन हमारे राजनेता इतने गंभीर मुद्दों को अपनी राजनीति का शिकार बनाते रहेंगे। इस तरह की माँग ज़ायज बात को भी हल्के में ले जाती है। सरकार अगर इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेती है तो यह समझा जायेगा कि इसका राजनीतिकरण करने में वह बराबर की भागीदार है !अब समय आ गया है कि हम भाषाई और सूबाई राजनीति से सख्ती से निपटें !

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

प्रभाष जोशी- क्रिकेट के लिए जिए.....

बीती रात भारत-आस्ट्रेलिया का पांचवां एक-दिवसीय मैच कई मायनों में न भुला पाने वाला सबक दे गया !सचिन के अतुलनीय पराक्रम के बाद भारत ने सिर्फ़ एक मैच ही नहीं गंवाया बल्कि अपने एक सच्चे सपूत को भी खो दिया जो किसी मैच की हार-जीत से परे बहुत बड़ी क्षति है!
प्रभाष जोशी हमेशा की तरह अपने क्रिकेट और सचिन प्रेम के कारण इस मैच का आनंद ले रहे थे,जिसमें बड़ा स्कोर होने के कारण भारत के लिए ज़्यादा कुछ उम्मीदें नहीं थीं,पर टीम का भगवान् अपनी रंगत में था और लोगों ने सालों बाद सचिन की पुरानी शैली और जवानी की याद की। केवल अकेले दम पर उनने बड़े टोटल का आधा सफ़र तय किया और हर भारतीय को आश्वस्त कर दिया कि जीत उन्हीं की होगी पर तभी अचानक वज्रपात सा हुआ और जो मैच भारत की झोली में आ रहा था वह हमें ठेंगा दिखा कर चला गया और यही कसक जोशी जी की जान ले बैठी। उन्हें सीने में दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल ले जाया गया पर हम उन्हें बचा नहीं पाये ।पत्रकारीय बिरादरी का 'भीष्म पितामह' अपनी यात्रा पर जा चुका था। सचिन क्रिकेट के भगवान् थे,प्रभाष जी के लिए क्रिकेट भगवान् था और हम जैसे पाठकों के भगवान् प्रभाष जी थे !
प्रभाष जी की लेखनी के कायल इस देश में कई लोग मिल जायेंगे,जो उनका ही लिखा आखिरी फैसले की तरह मानते थे। केवल अखबारों में लेख लिखने के लिए नहीं उन्हें याद किया जाएगा,अपितु पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा और उनकी चिंता को हमेशा स्मरण किया जाएगा। वे राजेंद्र माथुर के जाने के बाद अकेले ऐसे पत्रकार थे जिनकी किसी भी ज्वलंत विषय पर सोच की दरकार हर सजग पाठक को थी। वे ऐसे टिप्पणीकार भी थे जिन्होंने न केवल राजनीति पर खूब लिखा बल्कि क्रिकेट,टेनिस और आर्थिक मसलों पर उनकी गहरी निगाह थी। उनके राजनैतिक लेखों से आहत होने वाले भी उनकी क्रिकेट और टेनिस की टिप्पणियों के मुरीद थे।
प्रभाष जी के जाने से धर्मनिरपेक्षता को भी गहरी चोट लगी है। उन्होंने अपने लेखन के द्वारा हमेशा गाँधी के भारत की हिमायत की और कई बार इसका मूल्य भी चुकाया।आज जब अधिकतर पत्रकार सुविधाभोगी समाज का हिस्सा बनने को बेचैन रहते हैं,जोशी जी एक मज़बूत चट्टान की तरह रहे और यही मजबूती उन्हें औरों से अलग रखती है।
जोशी जी इसलिए भी भुलाये नहीं भूलेंगे क्योंकि उन्होंने न केवल राजनीतिकों को उपदेश दिया बल्कि उस पर ख़ुद अमल भी किया,इस नाते हम उनको निःसंकोच पत्रकारीय जगत का गाँधी कह सकते हैं। प्रभाष जी को 'जनसत्ता'की तरह अपन भी खूब 'मिस' करेंगे। उन्हें माँ नर्मदा अपनी गोद में स्थान दे,यही एक पाठक की प्रार्थना है!

बुधवार, 28 अक्तूबर 2009

कोई डॉक्टर है क्या ?

अभी जल्दी में एक ख़बर आई कि अपनी राष्ट्रिय पार्टी ,भाजपा बीमार है,सुनकर बड़ा दुःख हुआ क्योंकि अपने को इस पार्टी से बेहद लगाव है। उसे क्या बीमारी है इस पर बाद में बात करते हैं ,सबसे पहले तो उसकी बीमारी पर हमारी चिंता तो जान लें !
अगर एक देशभक्त पार्टी जो शुचिता ,स्वराज और संस्कृति की बात करती है उसे कुछ हो गया तो हम जैसे लोगों का क्या होगा,हिंदू धर्म का क्या होगा और सबसे बढ़कर उस संकल्प का क्या होगा जो देश की सेवा के लिए इसने लिया हुआ है। देश को परिवारवाद और रोमन साम्राज्य से कौन बचायेगा,अयोध्या में राम-मन्दिर कैसे बन पायेगा और अगर अपना कोई जहाज तालिबानी पकड़ ले गए तो उन्हें जलेबी कौन पहुँचायेगा?
कहते हैं कि उसकी बीमारी की ख़बर अपने ही भागवत साहब ने बताई है साथ ही निदान भी दिया है कि यह बीमारी केवल शल्यक्रिया के द्वारा ही ठीक हो सकती है। अब यह देखने की बात है कि यह सर्जरी पूरे शरीर की होनी है या दिमाग की? हालाँकि राजनाथ जी ने पूछा भी है कि किसका दिमाग ख़राब है, तो एक तरह से उनने भी माना है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है ।
वैसे अपन जैसे कहने वाले बहुत पहले से कह रहे हैं कि पार्टी नहीं उसकी विचारधारा बीमार है पर सुनने वाला कोई नहीं है,उल्टे इसका इलाज़ नरेंद्र मोदी और आडवाणी जी से कराना चाह रही है जबकि सारी बीमारी कि जड़ यहीं है। जिन आडवाणी जी को अगले चुनावों के लिए अनफिट मान लिया गया हो उन्हीं को बेमन ढोते रहना कहाँ की समझदारी है? भाजपा का बीमार होना देश के लिए ठीक नहीं है और समय रहते पार्टी के लोगों द्वारा इसका इलाज़ कर लेना चाहिए नहीं तो जनता सही इलाज़ करना बखूबी जानती है !
इस उम्मीद के साथ कि भाजपा की तबियत जल्द सुधर जायेगी ,ढेर सारी सदिच्छाओं के साथ.....

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

अटलजी का संदेश !

बहुत दिनों बाद अटलजी की तरफ़ से कोई ख़बर आई,मन को थोड़ी ठंडक सी पहुँची कि अभी भी देश में ऐसी कोई आवाज़ है जो ख़बर बनती है !अटलजी का यह संदेश महाराष्ट्र व हरियाणा में हो रहे विधानसभा चुनावों के मद्दे-नज़र आया है,पर इसका प्रभाव मतदाताओं पर भी पड़ेगा ,इस बात से अटलजी भी शंकित होंगे।
दर-असल अटलजी की पारी तो कब की ख़त्म हो ली और अडवाणी जी की हालत तो लोकसभा चुनावों के बाद से ही पतली हो रही है। भाजपाइयों ने ही उन्हें पुराना 'अचार ' कहकर उनके अस्तित्व पर हँसने का मौका मुहैया कराया, ऐसे में पार्टी के रणनीतिकारों ने अपने पुराने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया है,पर उन्हें पता भी है कि एक चुका हुआ कारतूस कितना काम कर सकता है?
अटलजी ने अपने संदेश में लोगों से कांग्रेस के कुशासन से बचने को कहा है,गोया उन्हें भी इस बात का इल्हाम हो गया हो कि भाजपा गठबंधन सत्ता में वापस नहीं आ रहा है, नहीं तो वे अपने दल की तरफ़ से जनता को नया क्या देने जा रहे हैं ,इस बारे में बताते।
जिस दल में नेत्रत्व को लेकर बराबर अनिश्चितता बनी हुई हो वह किसी देश या प्रदेश को किस निश्चित राह पर ले जाने को सक्षम होगा ,यह संघ और भाजपा के तमाम बुद्धिजीवी भी जानते होंगे। अडवाणी जी के नेत्रत्व की खुलेआम विफलता के बाद भी पद न छोड़ने की मानसिकता भाजपा के लिए बहुत भारी पड़ने वाली है।
ऐसे संदेश यदि काम करते तो शायद पार्टी इस हाल में न होती क्योंकि जनता को अटलजी का वह संदेश अभी भूला नहीं है जो उन्होंने 'गोधरा' के बाद नरेंद्र मोदी को 'राज-धर्म' निभाने के बारे में दिया था। तब मोदी और अडवाणी जी ने उसके निहितार्थ नहीं समझे ।
एक पार्टी को अपनी चुनावी जीत पक्की करने का पूरा अधिकार है,पर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह उपलब्धि वह किस मूल्य पर पाना चाहती है?

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

जिन्ना,जसवंत और वो !

पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव कब के ख़त्म हो गए पर भारतीय जनता पार्टी का ख़ुमार अभी तक उतर रहा है। जो सिपाही कल तक पार्टी के लिए जी-जान से हुँकार भर रहे थे,वही आज उसका गिरेबाँ पकड़ कर अपना हिसाब माँग रहे हैं। ताजा संकट जिन्ना के बारे में किताब लिखने के बहाने जसवंत सिंह को एकतरफा तरीके से बाहर निकालने से पैदा हुआ है। सुधीन्द्र कुलकर्णी ,अरुण शौरी की तलवारबाज़ी तो हमें देखने को मिली ही है इसके पहले से वसुंधरा राजे और खंडूडी का असंतोष पहले से ही खदबदा रहा था। इन सबमें पार्टी को जसवंत सिंह कमज़ोर कड़ी दिखाई दिए और उन्हें 'किक' मारने में ज़्यादा देर नहीं लगाई गई ।
अब मूल मुद्दे पर आते हैं। दर-असल पार्टी के लिए जिन्ना कोई बहुत बड़ा बहस का विषय हैं भी नहीं। पार्टी के प्रेरणा-स्रोत रहे आडवाणी जी के उच्च विचारों से पार्टी पहले ही लाभान्वित हो चुकी है। उनके नेत्रत्व में 'मज़बूत' प्रधानमंत्री का नारा देकर पार्टी पहले तो सत्ता गवां बैठी और अब उन्हीं की 'मजबूती' से वह विपक्ष का रोल भी अदा कर रही है। कितनी हास्यास्पद बात है कि भाजपा में एक हारे हुए सेनापति को कुर्सी से चिपका दिया गया है और दूसरे लोगों को कहा जा रहा है कि वे हार की ज़िम्मेदारी लेकर अपनी-अपनी कुर्सी छोड़ें ।
यह ऐसी भाजपा है जिसका नेता हारने के बाद भी कुर्सी-मोह में जकड़ा हुआ है और वह ऐसी कांग्रेस से टक्कर लेने को सोचती है जिसकी नेता प्रधानमंत्री -पद को पाकर भी ठुकरा देती हैं। ऐसे में किस तरह कोई अपने दल के लिए आदर्श प्रस्तुत करेगा? जब ऊँचे पद पर बैठे लोगों में ऐसी लालसा रहेगी तो नीचे वाले न तो ऐसे बनेंगे और न ही वे कोई अनुशासन मानेंगे।
जसवंत सिंह भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। वे इतने दिनों से आँख ,कान बंद किए बैठे रहे तब उन्हें धर्मनिरपेक्षता की चिंता नहीं हुई (खासकर गुजरात दंगों पर ) और अब अगर वे ऐसा कर रहे हैं तो यह विशुद्ध व्यावसायिक हितों के लिए ताकि उनकी किताब ख़ूब बिके और इस बहाने उन्हें रोज़गार मिल जाए। और अपने रोज़गार के लिए वे क्यों न कुछ करें जब उनका नेता ही अपने लिए 'रोज़गार' (नेता-विपक्ष)ढूँढ लेता है!
अरुण शौरी ने न जाने क्या-क्या कहा पर पार्टी उनको निकालने की ज़ल्दी में नहीं है। कही ऐसा न हो कि किसी दिन पार्टी में से निकालने वाला ही कोई न बचे क्योंकि जसवंत और शौरी की तरह रोज़गार का संकट कइयों को है!

शनिवार, 15 अगस्त 2009

जश्न-ए-आज़ादी,--एक वार्षिक कार्यक्रम !

हमें आज़ादी मिले ६२ साल हो गए और अपनी पीठ भी इसलिए हमने हर साल थपथपाई है। हम सभी इस समय 'राष्ट्र -भक्ति' के खुमार में थोड़ी देर के लिए भले डूब जाते हैं पर यह ऐसी भावना है जो निरंतरता के साथ होनी चाहिए। जिन लोगों ने जिन लोगों के लिए बाहरी ताकतों से संघर्ष करके अपने प्राणों को न्योछावर किया था वह इसलिए नहीं कि हमारे ही लोग हमारे ही लोगों के खून के प्यासे हो जायें ! यह काम दो स्तरों पर चल रहा है। हिंदुस्तान का आम आदमी शारीरिक और आर्थिक रूप से अपंग बनाया जा रहा है और इसे अंजाम देने में पूरी सरकारी मशीनरी लगी हुई है जिसमें पुलिस,बाबू,नेता,नौकरशाह,व्यापारी और हर वह शख्स लगा हुआ है जो यह काम कर सकने की ताक़त रखता है।
हम हर साल १५ अगस्त को लाल किले से चढ़कर अपना दम दिखाते हैं,पर क्या कोई सरकार ऐसी भी होगी जो अपने ही लोगों,जमाखोरों.मिलावटखोरों और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ़ चढ़ कर धावा बोल सके। हम पाकिस्तान ,चीन,अमेरिका सबसे निपट लेंगे लेकिन आज ज़रूरत इसी बात की है कि हम अपने ही लोगों से अच्छी तरह से निपट लें !यह सारा कार्यक्रम केवल सरकार के सहारे नहीं पूरा हो सकता है,इसमें हम सबकी भागीदारी भी उतनी ही ज़रूरी है।
पन्द्रह अगस्त केवल सालाना ज़ोश का एक 'डोज़' भर नहीं है,यदि हमें अपने अस्तित्व को बचाए रखना है तो असली लड़ाई (भय,भूख और भ्रष्टाचार) से जंग का एलान करना ही होगा !

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

आओ आओ प्यार करें !

हाल ही में जबसे दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में समलैंगिकों को कानूनी मान्यता प्रदान की है ,देश भर में एक अलग ही बहस चल पड़ी है। लोकतान्त्रिक देश में किसी विषय पर बहस होना बुरा नहीं है ,पर उस बहस का उद्देश्य ही बिल्कुल बदल जाता है जब यह मात्र व्यावसायिक हितों से जुड़ी हो। मीडिया को बैठे-बिठाये कोई मसाला मिलता है और वह उसमें मिर्च का तड़का देकर एक पक्ष बन जाता है।
'गे' की अवधारणा को भारतीय समाज में आत्मसात करने की वकालत करने वाले इसमें ' नई सोच' , 'वयस्कता' व 'आपसी सहमति' को अपना आधार बना रहे हैं पर क्या इसी कसौटी से 'बहु विवाह','पर-पत्नी गमन' जैसी चीज़ों को भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है? माना कि इस 'मनोवृत्ति ' से पीड़ित लोगों का भी मानवाधिकार है पर खुले-आम ऐसी व्यवस्था को 'लाइसेंस' देने से हमारे बीमार होते जा रहे समाज को एक और ज़हरीला इंजेक्शन चुभाना है !जहाँ तक बात है , कानूनी हक देने कि तो न जाने ऐसे कितने सारे हक , जो समाज को पहले से मिले हुए हैं, शायद ही लागू हो पाते हैं !
हम आधुनिकता के नाम पर यूरोप और अमरीका की नक़ल तो बहुत करते हैं पर वैसी 'विकसित' सोच ला पाते हैं क्या?पहनावे और कला के नाम पर टीवी और अख़बारों में अश्लीलता भरी पड़ी है, और अब तो खुले-आम बाज़ारों में ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं, जहाँ लड़कियाँ अधनंगे बदन घूमती हैं,सिगरेट व शराब पीती हैं। इन बातो को पुरूष-प्रधान समाज की मानसिकता कहकर नकारा जा सकता है ,पर दिन-प्रतिदिन इससे होनेवाले परिणामों पर भी गौर करना ज़रूरी है। एक पुरूष का बिगड़ना व्यक्तिगत प्रभाव छोड़ता है ,पर एक नारी का पतन पूरे परिवार को तबाह कर सकता है।
इसलिए 'गे' समर्थकों से यही कहना है कि वे अपनी खुशी ढूँढें मगर सरे-आम भोंडी हरकतें करके 'अल्ट्रा-आधुनिक' न बनें !

रविवार, 21 जून 2009

मायावती की नौटंकी !

आज की राजनीति में अपनी 'छवि' को चमकाने का सबसे सरल ,सस्ता तरीका है कि पहले से स्थापित किसी महान पुरूष को जी भर के गरिया दो या किसी बने-बनाए नियम के प्रतिकूल बयानबाजी कर दो । मायावती जैसे लोग इसी श्रेणी में आते हैं । इन्होंने अपनी राजनीतिक पारी ही गाँधीजी को भद्दी गाली देकर शुरू की थी और अब जब हालिया चुनावों के बाद सत्ता में पकड़ कमज़ोर होती दिखी तो वही 'फार्मूला' अपनाया है।
मायावती जी ने उवाचा है कि गाँधीजी 'नौटंकी-बाज़ 'थे । अव्वल तो इस तरह की टिप्पणी से गाँधीजी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा पर जब यह बात कहने वाला संवैधानिक पद पर बैठा हुआ एक व्यक्ति कहता है तो चिंता होती है कि हमारा संविधान इतना लुंज-पुंज क्यों है कि समग्र रूप से मान्य ऐसे व्यक्तित्व पर कोई अपने निज़ी लाभ के लिए करोड़ों लोगों की भावना को ठेस पहुँचा कर भी ठठा कर हँसता है और वह चुपचाप देखता-सुनता रहता है?
दर-असल जिन लोगों के पास न तो अपनी कोई नीतियाँ हैं न उनमें आत्म-विश्वास है तो वह इसी तरह के 'शार्ट -कट' का रास्ता अपनाते हैं पर जनता भी अब ऐसे लोगों को 'शार्ट' करना सीख गई है। मायावती कितनी बड़ी 'नौटंकी-बाज़' हैं यह अब किसी से छुपा नही रहा।वह पूरी तरह से गुण्डा ,माफिया ,हफ्ता-वसूली करने वाले को प्रश्रय देने वाली ज़मात की नेता बनकर उभरी हैं। महात्मा गाँधी की योग्यता व उनके लिए वकालत करने की कोई ज़रूरत नही है । उनके योगदान का मूल्यांकन देश ही नहीं सम्पूर्ण विश्व कर रहा है,ऐसे में ऐसी ओछी टिप्पणियों से उनके क़द पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
यह बात और है कि मायावती का 'गाँधी' उपनाम ने जीना हराम कर रखा है और ऐसे में वे हर गाँधी पर अपना नज़ला गिराना चाहती हैं ,पर इससे क्या उनके पराभव और पतन की रफ़्तार कम हो जायेगी?

बुधवार, 27 मई 2009

खुला ख़त आडवाणी जी के नाम !

आदरणीय आडवाणी जी !
मैं पहली बार किसी राजनेता और उससे भी ख़ास , भाजपा नेता से इस तरह सरे-आम रूबरू हूँ। अभी कुछ दिन पहले मुझे एक जानकारी मिली कि हालिया दिनों में 'गूगल -सर्च' में आप अव्वल नंबर पर रहे तो लगा कि आख़िर माज़रा क्या है? दर-असल जिस दिन से वह मुआ 'कमज़ोर ', प्रधानमंत्री बन गया ,आपके तो दर्शन ही दुर्लभ हो गए। न तो किसी चैनल में और न ही पार्टी की प्रेस-कांफ्रेंस में आपके दीदार हो रहे थे,सो इसीलिए भाईलोगों को चिंता होने लगी कि आप कहीं अंतर्ध्यान तो नहीं हो गए !लोग 'गूगल' पे आपकी 'लोकेशन' पता कर रहे थे ,जीपीएस का सहारा ले रहे थे ,गोया आप कोई खोने वाली चीज़ हो!
बहर-हाल ,यह पत्र मैं आपको इसलिए लिख रहा हूँ कि आपने बहुत अच्छी लड़ाई लड़ी और यदि इसमें जीत नहीं मिली तो निराश होने की ज़रूरत नही है। इस बुढ़ापे में भी आप जिम जाते थे,रोज़ कई रैलियां करते थे ,वेब-साईट पर भी विराजमान थे पर यह जो हिंदुस्तान की पब्लिक है न यह कुछ भी तो नहीं सोचती। जैसा कि आपने बता ही रखा था कि आपका यह आख़िरी चुनाव है और इतिहास में प्रधानमंत्रियों की सूची में अपना नाम देखने की आपकी ज़ोरदार ललक है,पर उस इच्छा पर पलीता ही लग गया और सच बताएं यह आपके अलावा सबको पता था की ऐसा ही होने वाला है।
आपकी पार्टी में आपकी छवि एक 'हार्ड-कोर' नेता की रही है ,यह अलग बात है कि पिछले कुछ समय से लगातार आप बदलने की प्रक्रिया में थे पर यह नरेन्द्र मोदी और वरुण गाँधी जैसे लोग आपके दुश्मन निकले। इन लोगों ने आपके सत्ता में आने से पहले ही 'हुआ-हुआ' करके सारी योजना बर्बाद कर दी। आपको डुबोने में कारगिल,कंधार,जिन्ना और गोधरा ने अहम् भूमिका निभाई । थोड़ा सा धक्का 'बाल ठाकरे एंड संस ' ने भी दिया ,आप चाहे माने या न माने!
लोग अभी तक आपकी पार्टी का 'विधवा-विलाप' भी नहीं भूले थे जब सन् 2004 के चुनावों के बाद सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री पद को लेकर हो रहा था । उमा भारती और सुषमा स्वराज जब छाती कूट-कूट कर कह रही थी कि वे सिर मुंडवा लेगी या सन्यास ले लेगीं। पता नहीं, किसकी हाय किसको लगी पर देखो वे दोनों आज कहाँ हैं,सोनिया कहाँ हैं और आपका 'मिशन' कहाँ है?
इतने ख़राब परिणाम आने के बाद भी पार्टी आपको आराम देने के मूड में नहीं है। आपने तो इच्छा जताई थी कि आपको आराम दिया जाए पर लगता है पार्टी भी यह सोचे बैठी है कि इसके ताबूत में आखिरी कील आप ही ठोंके!
जहाँ आपकी प्रतिद्वंद्वी पार्टी के पास राहुल का 'यूथ -विज़न ' है वहीं भाजपा थके और चुके हुए लोगों के साथ 2014 का मुकाबला करने जा रही है।
आप से इस पत्र के माध्यम से गुज़ारिश है कि हिन्दुस्तान की असली नब्ज़ को पहचाने ,कुछ कठोर निर्णय लें और पार्टी में सुधारवादी ,अहिंसक तथा सहिष्णुतावादी ताकतों को आगे आने दें । किसी भी पार्टी में अनुभव के साथ अभिनव(युवा) का मिश्रण अपरिहार्य है।
उम्मीद करता हूँ कि अब देश की जनता आपको 'गूगल' के ज़रिये सर्च नहीं करेगी,वरन आप स्वयं जनता तक पहुँचेंगे ।

रविवार, 24 मई 2009

उत्तर प्रदेश का संदेश !

पन्द्रहवीं लोकसभा के परिणाम आने के साथ ही सभी दलों के द्वारा मंथन-चिंतन शुरू हो चुका है। जनता ने अनपेक्षित रूप से इन चुनावों में जाति - धर्म की राजनीति करने वालों को करारा ज़वाब दिया है ,यह बात और है कि ऐसे दल इससे कुछ सबक लेते हैं या नहीं ?
उत्तर प्रदेश करीब बीस सालों से किसी सही राजनैतिक नेत्रत्व की तलाश में है। अब इतने दिनों बाद प्रदेश में छाया कुहरा छँट रहा है। कांग्रेस को सीटें भले ही इक्कीस मिली हों पर वहाँ की बयार बदल रही है, जनता की प्राथमिकतायें बदल रही हैं ,यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। सपा और बसपा जहाँ सन्निपात की स्थिति में हैं वहीं भाजपा अपने पुराने दिनों की ओर लौटने को अभिशप्त है। नतीज़े आने के बाद से बहिनजी उखड़ी हुई हैं और इसका खामियाज़ा प्रशासनिक मशीनरी उठा रही है क्योंकि उसने बसपा के एजेंट की तरह अपनी भूमिका नहीं निभाई।बसपा ने अपनी हार के लिए ईमानदारी से सोचना भी उचित नहीं समझा। उसकी 'सोशल-इंजीनियरिंग' में बहुत बड़ा सुराख़ हो चुका है, जो फिलवक्त उसे दिखाई नहीं दे रहा है।
सपा एक आदमी के मैनेजमेंट का शिकार हो रही है जो पार्टी को मैनेज कम डैमेज ज़्यादा कर रहा है। मुलायम सिंह की कमज़ोरी है कि वह उसे चाहकर भी नहीं छोड़ सकते भले ही समाजवाद की बलि चढ़ जाए क्योंकि आज की राजनीति में पूँजीवाद ही सब कुछ है। प्रदेश की जनता अभी मुलायम का पिछला शासन नहीं भूली है जब पुलिस और लेखपालों की भर्ती में खुले-आम पैसों का खेल खेला गया था। इसी ऊब के बाद मैडम मायावती आई पर परिणाम सबके सामने है।
भाजपा ने तो चुनाव ही ऊहापोह में लड़ा । उसे कभी तो मन्दिर याद आ जाता कभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा , और जनता ने इस तरह जाति और धर्म के खेल से अपने को अलग कर सबको आइना दिखा दिया । अब पूरे पॉँच साल पड़े हैं आत्म-मंथन के लिए ।
कांग्रेस को भी खुशफ़हमी नहीं पालनी चाहिए । जिस उम्मीद और जोश के रथ पर जनता ने उसे बिठाया है, अगर उसने आगे सही 'फालो-अप ' नहीं किया तो उसके राहुल बाबा का 'मिशन- उत्तरप्रदेश' सीधा ज़मीन पर आ जाएगा।

गुरुवार, 21 मई 2009

जनादेश के निहितार्थ !

राजनीतिक दलों,मीडिया,चुनाव आयोग,व्यवसाय जगत व जनता का लम्बा इंतज़ार बड़ी जल्दी ख़त्म हो गया और पन्द्रहवीं लोकसभा का नया स्वरुप सबके सामने आ गया। कितना नीरस रहा यह चुनाव परिणाम ! न कहीं कोई परिचर्चा,न कोई उलझन या दबाव और न ही किसी के विकल्प को 'खुला' रहने का मौका ! सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि कई लोग तो 'बेरोजगार' हो गए !
इस चुनाव में यूपीए का सत्ता में आना तक़रीबन सब सर्वेक्षणों में तय माना जा रहा था पर कांग्रेस इतनी धमक के साथ वापसी करेगी ऐसा तो उसके रणनीतिकारों ने भी नहीं सोचा था। जनता ने इस बार एक तीर से कई शिकार करके कांग्रेस का काम आसान कर दिया । बहरहाल , जो जनादेश आया है उसके कई निहितार्थ हैं।
सबसे ज़्यादा घाटे में रहे वाम दल । उनको 'सरपंच' बनने का भी मौका नहीं मिला क्योंकि उनके ही 'पंच' गायब हो गए । चुनाव बाद करात साहब बंगाल का खूँटा दिल्ली में आकर गाड़ना चाहते थे कि तम्बू लगाकर 'मोर्चा-मोर्चा' और 'पी.एम.-पी.एम.' खेला जाए पर बंगाल की जनता ने उनका तम्बू बंगाल से ही उखाड़ फेंका । महीनों से तैयारी में लगे कई तरह के धंधे-बाज , माफिया-टाईप मसीहा , सत्ता के सौदागर व किंग-मेकर ऐसे ठिकाने लगे कि उनकी 'मार्केट-वैल्यू' ही ख़त्म हो गयी। जनता के एक ही वार में पवार,लालू,पासवान, माया व जया सभी चित्त हो गए !
सबसे बड़ा तुषारापात तो भाजपा के 'पी एम इन वेटिंग' आडवाणी जी के सपनों पर हुआ है। सभी तरफ़ से आवाजें आ रही थीं कि उनकी 'कुंडली' में शिखर-पद का योग नहीं है पर वह मानने को बिल्कुल तैयार नहीं थे। 'मज़बूत नेता और निर्णायक सरकार' का नारा ज़रूर जनता को अच्छा लगा और उसने उनके बताये हुए कमज़ोर प्रधानमंत्री को और मज़बूत करके निर्णायक सरकार बनवा दी !
अब जबकि सारा खेल-तमाशा ख़त्म हो चुका है,संघ और भाजपा के हिंदुत्व को जनता ने कूडेदान के हवाले कर दिया है। लगता है कि भाजपा में समझ-बूझ वालों की कमी हो गई है तभी तो पार्टी ने वरुण और मोदी के ज़हरीले भाषणों व शिव-सेना और मनसे के उपद्रवों को जानबूझ कर अनसुना व अनदेखा किया। इस चुनाव ने एक काम और किया है । जनता ने जहाँ लालकृष्ण आडवाणी की लपलपाती महत्वाकांक्षा को शान्त किया है वहीं भाजपा के ही भाई-लोगों ने लगे हाथों नरेन्द्र भाई को भी ठिकाने लगा दिया है। अब भविष्य में शायद ही संभावित प्रधानमंत्री पद के लिए कोई उनके नाम का प्रस्ताव करे !
इस जनादेश का निहितार्थ कांग्रेस के लिए भी है कि उसे अब बिना किसी बहाने-बाज़ी और हीला-हवाली के ऐसे काम करने चाहिए जो आम आदमी के हित में हों तथा उन सपनों को भी सच करे जो उसने ग़रीबों और युवाओं को दिखाए हैं !

मंगलवार, 12 मई 2009

सरकार के लिए जोड़-तोड़ !

नयी लोकसभा का गठन अब अपने अन्तिम चरण में है। जितनी अनिश्चितता और आशंकाएं इस बार के चुनावों में मतदाता के मन में रही हैं,उतनी शायद कभी नहीं रही। यह चुनाव असली मुद्दों से ज़्यादा भड़काऊ भाषणों ,करोड़पति उम्मीदवारों,अशालीन आक्षेपों और अनगिनत प्रधानमंत्री पदसंभावित उम्मीदवारों के लिए ज़्यादा जाना जाएगा! सरकार बनाने की प्रक्रिया में छोटे और क्षेत्रीय दलों की करवट के बारे में भी अलग-अलग तरह के कयास लगाये जा रहे हैं ,पर हर कोई अपने सारे पत्ते खुला रखना चाहता है।
वामपंथियों की लाख घुड़कियों के बावजूद यह हर कोई जानता है कि वोह कांग्रेस से परहेज़ नहीं कर सकती क्योंकि उसका 'थर्ड -फ्रंट' परिणामों के निकलते ही चल बसेगा । जानकारों कि उम्मीद यही है कि अडवाणी जी को फिर से निराशा हाथ लगेगी और सत्ता आखिर 'हाथ' के ही पास रहेगी। अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो कांग्रेस आसानी से किसी और का खेल नहीं बनने देगी या फिर वह विपक्ष में बैठेगी !
सोलह मई का इंतज़ार सबको है पर सभी राजनैतिक दल अपनी लॉटरी का ख्वाब देख रहे हैं और जनता एक अदद सरकार के बनने का ,जिसकी प्रक्रिया में उसकी आंशिक या कहिये प्रतीकात्मक भागीदारी है!

मंगलवार, 24 मार्च 2009

वरुण भाजपा के नए हथियार !

अब लगने लगा है कि अपना देश पूरी तरह से चुनावी बुखार की गिरफ़्त में आ चुका है। सत्ता की दौड़ में बने रहने के लिए सभी पार्टियाँ आखिरी वार में जुटी हैं लेकिन भाजपा का चुनावी अभियान बड़ा ही दिलचस्प है। पार्टी के 'पी.एम.' पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी लिए यह आखिरी समर है। इस अभियान की शुरुआत करते हुए नए व आधुनिक तरीके आजमाने का काम शुरू हुआ था पर चुनाव की औपचारिक घोषणा होते-होते पार्टी अपने परम्परागत हथियारों की शरण लेने को मजबूर हो रही है। इसकी खास वजह यही रही कि चुनाव में बहुमत की बात तो दूर उसके अपने सहयोगी दल किनारा करने लगे और पार्टी के अन्दर ही मतभेद शुरू हो गए । ऐसी दशा में आडवाणी जी को अपना 'सिंहासन' बहुत दूर भागता दिखायी दिया और अंत में वरुण गाँधी जैसे छोटे मोहरे को आगे करके हारी हुई बाज़ी को जीतने की कोशिश की गयी । वरुण ने पीलीभीत की सभा में जो कहा उसका जितना प्रचार-प्रसार और जितनी हील-हुज्ज़त हो उतना ही भाजपा से भागती-कुर्सी उसके पास आयेगी,ऐसा उन लोगों को लगता है जो भारतीय मतदाता का मानस ठीक तरह से नहीं जानते । वरुण के कहे हुए शब्दों को यहाँ दुहराने की ज़रूरत नहीं है ,वे शब्द भाजपा को थाती और कमाई समझकर अपने पास रख लेने चाहिए क्योंकि चुनाव बाद आडवाणी जी को तसल्ली देने के लिए कुछ नहीं होगा तो वे ही काम आएंगे।
यह भारतीय लोकतंत्र और राजनीति की विडम्बना ही है कि आप गैर-कानूनी ,गैर-मानवीय बात करके भी अपनी छाती चौड़ी कर सकते हो और यह सोचते हो कि कोई तुम्हारा क्या कर लेगा?
भाजपा ने तो अपना अन्तिम अस्त्र चला दिया है क्योंकि उसे भी पता है कि अगले चुनाव उसे बहुत सुखद परिणाम नहीं देने जा रहे हैं पर वह शायद यह भूल रही है कि आखिरी वार तो मतदाताओं के ही हाथ में है और बहुत दिनों तक उसे कोई बरगला नहीं सकता है।

सोमवार, 16 मार्च 2009

पाकिस्तान में लोकतंत्र !

सोलह मार्च के 'लॉन्ग -मार्च' में पाकिस्तान की जनता के अलावा भारत की जनता और मीडिया की निगाहें लगी हुई थीं । शुक्र है कि इसका जो नतीज़ा फिलवक्त आया है वह लोकतंत्र की जीत के रूप में देखा जा रहा है। नवाज़ शरीफ ने वहां के अवाम की नब्ज़ टटोल ली थी और इसी जन-शक्ति के आगे ज़रदारी का कु-राज दम तोड़ गया। फौज़ी बगावत या किसी और तख्ता-पलट की आशंका के बीच पाकिस्तान के अन्दर में तब्दीली आयी है वह काबिले-गौर है पर वहां सत्ता बचाने और पाने का संघर्ष ख़त्म हो गया है, यह मानना बेवकूफ़ी होगी। आसिफ अली ज़रदारी ने बेनजीर की हत्या के बाद हुए चुनावों में स्वयं के लिए जनादेश नहीं पाया था,पर अपने अनुकूल समीकरण पाते ही उन्होंने राष्ट्रपति बनने की जितनी जल्द-बाजी दिखायी थी उसका तो हश्र ऐसा ही होना था।
पाकिस्तान धीरे-धीरे एक ऐसे अंध-कूप की तरह बढ़ता जा रहा है जहाँ गृह-युद्ध जैसे हालात से जूझना होगा। सेना,आई एस आई , तालिबान और कट्टरपंथियों के मुंह में जो खून लग चुका है,उसे साफ़ करने की हिम्मत वर्तमान परिदृश्य में दिखाई नहीं देती है ,अगर मियाँ शरीफ यह थोड़ा भरोसा जगा पाते हैं तो न केवल पाकिस्तान बल्कि पड़ोसी मुल्कों और सारी दुनिया के लिए अच्छा होगा।

बुधवार, 11 मार्च 2009

होली, तब और अब !

कई सालों से दिल्ली में ही होली मन रही है। पिछले पन्द्रह वर्षों से जब से दिल्ली में हूँ ,शायद एक -दो बार ही होली में गाँव जाना हुआ। दिल्ली आकर तो लगता है सारे त्यौहार ही ठप पड़ गए हैं। बचपन में जब गाँव में रहना होता था तो हर त्यौहार का एक अलग ही उल्लास था। होली और दिवाली में तो बच्चे अपने मन की खूब करते थे और बड़े भी उसमें शामिल होते थे।
होली की बात चल रही है तो इसी की बात करते हैं। हमें याद आता है कि होलिका-दहन में शाम को सारे लोग गाँव के बाहर इकठ्ठा होते थे,और वहाँ हम सब अपने साथ गोबर से बने हुए 'बल्ले' ले जाते थे । इन 'बल्लों' के बारे में भी दिलचस्प बात यह है कि होली से क़रीब पन्द्रह दिन पहले से सबके यहाँ 'बल्ले' बनते थे ,जिनकी आक्रतियों में कई तरह के जानवर व खिलौने होते थे । इन्हीं सूखे बल्लों को बच्चे रस्सियों में बाँध लेते थे तथा यह ध्यान रखा जाता था कि एक रस्सी में पाँच बल्ले ज़रूर हों!
होलिका-दहन में गाँव से एक पंडितजी होते थे और जब वो 'बल्लों' के ढेर में आग लगाते तो सारे लोग उधर अपनी पीठ कर लेते थे। इस तरह जब पूरी तरह आग लग जाती तो लोग उसमें से अपना-अपना हिस्सा (जलते हुए बल्लों के टुकड़े) लेते और उसे घर लाया जाता। घर में बड़ी-बूढ़ी उसी आग से पूजा के लिए आँगन में होली जलातीऔर इसके बाद प्रसाद बाँटा जाता।
अगले दिन धुलेंडी होती थी और इसके लिए गाँव में कई टोलियाँ तैयार होती, जो गाँव के पास ही एक मन्दिर के पास इकट्ठा होती थीं । रास्ते में हम-लोग विचित्र प्रकार की वेश-भूषा बनाकर लोगों को डराते व उनपर कीचड़ डालते या लोगों को कोयले से रंग देते।
दोपहर बाद गाँव में फ़ाग की शुरुआत होती और यह सिलसिला तीन दिन तक चलता था । फ़ाग की मंडली हर घर के दरवाजे जाती थी और गृह-स्वामी यथा-शक्ति खातिरदारी करते थे। इस खातिरदारी में 'गुड़-भंगा' ,गन्ने का रस,गुझिया ,पेड़े व घिसी हुई शकर और पान शामिल था।
तीन दिनों तक गाँव के लोग फ़ाग का आनंद लेते जिसमें कई लोग तो इतने मस्त हो जाते कि पूछो मत। तब की होली में अपुन की भी सक्रिय भागीदारी होती थी,जबकि अब दिल्ली में 'फ्लैट' के अन्दर ही धुलेंडी के दिन रहना पड़ता है। वाकई में अब होली कितनी रंग-हीन हो गयी है!

मंगलवार, 10 मार्च 2009

आडवाणी और उनके मुखौटे !

अपने आडवाणी जी वाकई बहुत जल्दी में हैं। 'पी एम इन वेटिंग ' का खिताब पाने के बाद वे 'ओरिजनल' पी एम बनना चाहते हैं। इसके लिए वे युद्ध-स्तर पर काम कर रहे हैं। एक ओर जहाँ वे मनमोहन को सोनिया गाँधी की कठपुतली बनाकर मजाक उड़ा रहे हैं,वहीं दूसरी ओरउन्होंने चुनावी-मैदान में अपने मुखौटे उतार दिए हैं।
आडवाणी जी के मुखौटे उतारने के पीछे यह सोच हो सकती है कि अटल जी तो भाजपा के मुखौटे के रूप में विख्यात थे और वे पी एम भी बने,मनमोहन जी ,उनके अनुसार एक मुखौटे की ही तरह काम कर रहे हैं! फिर गुजरात में नरेन्द्र भाई मुखौटे लगवाकर दोबारा सत्ता पा सकते हैं तो यह 'फार्मूला' अपन पर भी फिट हो सकता है!
दर-असल जनता को और देश को आज मुखौटों की ही ज़रूरत है। अपने सही और वास्तविक रूप में न नेता जनता के सामने आ सकते हैं और न जनता ही उन्हें सर-माथे पर बिठा सकती है। इसलिए जब मुखौटों से ही काम चलता हो तो 'ओरिजनल लुक' कौन देखता है? अब राजनीति के साथ-साथ नेता भी एक 'उत्पाद' बन गया है और यह जनता की नियति है की वह 'कस्टमर' बनकर कष्ट से मरती रहे!
अब हमें तो पूरा यकीन हो गया है कि आडवाणी जी 'पी एम ' बनने जा रहे हैं आपको हो या न हो !

गुरुवार, 5 मार्च 2009

जय हो! जय हो!

काफ़ी दिनों बाद कांग्रेस के लिए एक ख़बर खुशी की आई है।'स्लम डॉग मिलियनेयर ' फ़िल्म हिट क्या हुई उसके बनाने वाले,उसमें काम करने वाले मालामाल तो हुए ही उसे देखने और उसका संगीत सुनने वाले भी मालामाल होने की राह पर हैं! फ़िल्म को आठ ऑस्कर पुरस्कार तो मिले ही ,रहमान,गुलज़ार,रसूल भी ने अपना झंडा खूब गाड़ा है। अब उन सबकी कामयाबी से प्रेरित होकर कांग्रेस पार्टी ने 'जय हो' के गाने के अधिकार खरीद लिए हैं। इस से उसे लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में जय पाने का अधिकार भी जनता से मिल गया है।
फ़िल्म अच्छी है,(चूंकि यह साबित हो चुका है) संगीत अच्छा है तो क्या उसे आधार बनाकर देश के युवाओं को सम्मोहित किया जा सकता है? जैसा कि बताया जाता है कि राहुल गाँधी के 'टारगेट' युवा हैं तो पार्टी ने ऐसे मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए एक 'मद-मस्त ' धुन का चुनाव किया है, जिसके ख़ुमार में देश का युवा बेसुध और मस्त हो जाय और उसे अपने रोज़गार और शिक्षा जैसे सवाल फ़ालतू लगें !
उम्मीद ही की जा सकती है कि इन चुनावों में जय पाने के बाद कांग्रेस पार्टी जनता की भी जय का अभियान चलाएगी और यह कि केवल अपनी जीत पाने भर के लिए उसने ग़रीबी को एक बिकाऊ 'आइटम' नहीं बनाया है।

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

चुनावी चकल्लस!

लोकसभा चुनावों के नज़दीक आते ही हर राजनीतिक दल ने अपनी रणनीति बनानी शुरू कर दी है। कांग्रेस सत्ता का सुख भोग रही है तो उसे उस सत्ता को बचाना है और भाजपा सत्ता को दूर किनारे से अपने पास लाना चाहती है। छोटे और क्षेत्रीय दल भी अपनी-अपनी गोटियाँ बिछाने में जुट गए हैं।
यूपीए सरकार औपचारिक चुनावी-कार्यक्रम के ऐलान से पहले दनादन राहतों के ऐलान किए जा रही है। यह सरकार बहुत जल्दी में है तथा यह भी जताना चाह रही है कि यदि विकास की गति को धीमा नहीं करना चाहते हो तो यथा-स्थिति में ही जनता की भलाई है। राहुल गाँधी को आगे करके युवा वोटरों को पटाने की मंशा साफ़ दिखाई देती है।
भाजपा तो कब से तैयार बैठी है। उसके पास दूल्हा भी है,ढोल -बाजे भी हैं पर साथ में बाराती कितने आएंगे यह नहीं पता चल रहा है। आडवाणी जी ने पूरा खाका खींच रखा है। 'अभी नहीं तो कभी नहीं' की तर्ज़ पर काम कर रहे हैं । अपना प्रचार केवल हिंदुस्तान में ही नहीं पाकिस्तान के अख़बारों में भी कर रहे हैं। 'ब्लॉग' लिख रहे हैं,वेब -
साईट चल रही है,युवा दिखने के लिए जिम जा रहे हैं। अरे भाई, अब इस बुढापे में और क्या -क्या करवाओगे ?
बाकी छोटे-मोटे दल और नेता भी अपनी-अपनी औकात के अनुसार भेंट-मुलाकात करके 'मार्केट-वैल्यू'' बढ़ा रहे हैं।अब आने वाला चुनाव ही सबको उनकी हैसियत बताएगा!

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

रेल कोच फैक्ट्री -एक सपना जो पूरा हुआ

Posted by Picasa आखिरकार लंबे इंतज़ार के बाद लालगंज,रायबरेली के लोगों की मनमाँगी मुराद पूरी हो रही है।संपूर्ण प्रदेश के लिए गौरव का विषय होने के बावजूद केवल राजनैतिक कारणों से मायावती ने लालगंज में शुरू होने जा रही रेल कोच फैक्ट्री का विरोध किया था पर उनकी एक चली और आज इस क्षेत्र में लाखों लोगों का सपना साकार होने जा रहा है। रायबरेली की सांसद और देश को आदर्श नेतृत्व प्रदान करने वाली श्रीमती सोनिया गाँधी ने बहुत साल पहले श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा शुरू किए गए विकास को गति देने की कोशिश की है . इंदिरा जी के जाने के बाद से रायबरेली राजनैतिक और सामाजिक रूप से अप्रासंगिक -सा हो गया था पर जब से सोनिया जी आयीं हैं, ज़िले की हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनी है। लालगंज के आस-पास का इलाका काफ़ी पिछड़ा हुआ है पर स्थानीय विधायक ,लालगंज नगर-पालिका चेयरमैन श्री अनूप बाजपेई और विशेषकर श्री के.एल .शर्माजी के व्यक्तिगत प्रयासों से विकास की गंगा फिर से बहने लगी है।
अभी भी बहुत से काम करने हैं जिस से इस क्षेत्र की पुरानी गरिमा को वापस लाया जा सकता है। किसी भी जगह विकास का पैमाना वहां की सड़कें होती हैं और इस दिशा में काम हो भी रहा है,इसके साथ ही परिवहन की हालत बहुत दयनीय है। आम आदमी व्यक्तिगत सवारी या टेम्पो के सहारे ही रहते हैं पर इस कारखाने के आने के बाद से रोज़गार और विकास को नयी गति ज़रूर मिलेगी। इसके लिए सोनिया जी को हार्दिक धन्यवाद !

शनिवार, 3 जनवरी 2009

माया मिली न राम !

बीता साल पूरी दुनिया के लिए भारी रहा ,सब ज़गह मंदी की मार पड़ी और कई कंपनियों का बोरिया-बिस्तर तक बंधगया पर भारत की एक राष्टीय पार्टी भाजपा के लिए तो 2008 जाते-जाते ऐसे ज़ख्म दे गया है जिन्हें वह ठीक से सहला भी नहीं पा रही है। पहले तो विधानसभा चुनावों ने ऐसा परिणाम दिया कि उसके 'मिशन-2009' के अभियान में ही पलीता लग गया। इन नतीजों ने पी एम इन वेटिंग आडवाणी जी के दिल की धड़कन बढ़ा दी है क्योंकि आने वाला समय अच्छे संकेत नहीं दे रहा है। उस पर कोढ़ में खाज यह हुआ कि पार्टी के मुख्यालय से भाई लोगों ने 'गाढ़ी - कमाई' से ढाई करोड़ रकम साफ़ कर दी! अब इस हालत में पार्टी खुलेआम कुछ भी कहने से बच रही है ,यहाँ तक कि वह इसके विषय में पुलिस-रिपोर्ट करने से बच रही है । जानकारों का मानना है कि अगर रिपोर्ट की गयी तो कई अप्रिय सवाल भी पूछे जायेंगे, मसलन इतना पैसा कहाँ से आया,इसका कहीं लेखा-जोखा है कि नहीं,वगैरह-वगैरह।
अब जबकि लोकसभा चुनाव सर पर हैं ,पार्टी को कुछ सूझ नहीं रहा है कि ऐसे में क्या किया जाए और उसके लिएये मुसीबतें ख़ुद उसके ही लोगों द्वारा दी गयी हैं । आज के हालात में न तो उसके हाथ सत्ता लगी है और जो जमा-पूँजी थी वह भी चली गयी । कहाँ तो अडवाणी जी मनमोहन सिंह को सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री कहकर उनका मज़ाक उड़ा रहे थे और कहाँ तो आज वे ख़ुद ही मज़ाक बने हुए हैं। उधर मनमोहन हैं कि 'सिंह इज़ किंग ' की धुन बजाये जा रहे हैं। अभी भी बहुत से लोगों को भाजपा से सहानुभूति है और उनके लिए यही कहना है कि इस 'सहानुभूति'
को अभी बचाए रखें , बहुत ज़ल्द पार्टी को इसकी और ज़रूरत पड़ने वाली है!